तपते रेगीस्तान में परछाई

सांस भी कटते रहे 
टुकडा टूकडा
वजूद से
रुह की परछाई
इक धुँआ सा   
जिसपर पैर चलने लगते थे
बेतहाशा

थकती  नही 
लौटती आंखे
रख देती थी उम्मीद
अधूंरें ख्वाब का
कही किसी पहाडी के
कोख में  

सुफेद चादर पर
चंद अल्फाज़ बिखेरे पडे रहे
सदियों की भटकन 
फूलो की खुशबूओ में बंद रही

धूप है
उम्मीद है
किरणों सी तेरी बाते
भटकन है
तू कही नही  मिलता
स्पर्श में
पर
तू आग हैं
और मोक्ष !!

6 comments:

  1. सुफेद चादर पर
    चंद अल्फाज़ बिखेरे पडे
    सदियों की भटकन
    फूलो की खुशबूओ में बंद
    Bahut achchhe bimbon aur shabdon ka prayog...achchhi kavita.
    Hemant

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  2. बहुत गहन अभिवयक्ति...

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  3. BAHOT HI KHUB likha hai aapne....jo bechen hoke kishka intazar kar raha hai....ushki rah mai aakhe bhi thak chuki hai,o itni dur tak ushe dhud rahi hai....itni koshisho ke bad bhi ek umeed baki hai....KI YE ZINDAGI TU KAHI TO HAI..JO TERA INTZAR KAR RAHI HAI MERI AAKHE BUS EK EK UMEED BAKI HAI....

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  4. Bahut sahi
    सुफेद चादर पर
    चंद अल्फाज़ बिखेरे पडे
    सदियों की भटकन
    फूलो की खुशबूओ में बंद

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  5. गहरी अभिव्यक्ति ..

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  6. सुफेद चादर पर
    चंद अल्फाज़ बिखेरे पडे रहे
    सदियों की भटकन
    फूलो की खुशबूओ में बंद रही
    ..wah bahoot khoob

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