दर्द की आंख नही होती

देखती हूँ उसे  
गुजरते वक्त की तरह

वही जिसने अपने सारे अश्क
मेरे हथेलियों पर रख
और डूबी हुई सूरज के मानिंद
समंदर में गोते लगा रही थी
प्रश्नों के भँवरजाल के बीच 

उसकी उम्र शायद
उतनी है
जितनी की एक माँ की होती थी
बरस रही थी मेघ की तरह
पर अस्तित्व उसकी प्यासी थी

फूँकार रही थी सवालों के बीच
दूसरे ही पल 
कसी हुई जंजीरों में फडफडा भी
पंखों के टूटने से घायल भी थी
समाज और उसके बीच की खाई में
गिरने से तिलमिला गई थी

समाजिक होना भी 
खाक होने जैसा था
जिसमें कही कोई चिंगारी नही होती  
एक बहते हुयें  शांत सोते की तरह होना था 

अप्रत्यक्ष दर्द जो उसके पलू में बंधे चलती थी 
वह उसके आग में जल रही थी
गांठों से मुक्त हो
समताप में जीना चाहती थी

समय को दुहाई और
माँ-बाप की मजबूरी
बेटी परायी जात
एक रस्म है
यह उन्होनें नें बना रखा था 
जिन्होनें उसे साडी में लपेटकर
खुद को बंधन से मुक्त कर लिया था  !!

4 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना है.
    क्या कहने


    समाजिक होना भी
    खाक होने जैसा है
    जिसमें कही कोई चिंगारी नही होती
    एक बहते हुयें शांत सोते की तरह होना है

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  2. यथार्थ और मार्मिक रचना ......बहुत सार्थक लिखती हैं आप

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