एक तितली

चलते हुए सपनें में
एक तितली
भरती रंग पंखो पर

हरा नीला पीला सब
इंद्रधनुषी
आसमान छूने की चाहत में
चलती बादलों पर
भींगती बारिशो में

और फिर
बहती सात सूरों में
सुरीली  हो 
मिल जाती समंदर से 
किनारो से टकराती
छूती लहरों को

सभी मौसमों में
रंग भरती 
थकती नहीं
चलती जाती
उडती डाल डाल और
पात पात
हर सफर हर राह

आसमान ऊँचा सही   
पर रंगीन परो पर
चाँद सूरज बिठा
छू लेती गगन 
एक तितली चलते हुए
सपनें में !!


ठहर तो सही सफर अभी बाकी है

ठहर तो सही
सफर लम्बी है
धूप बेसुमार
चिलचिलाती छाँव से
थकान प्यासी है

अगले दो कदम पर बादल मिलेंगे
सूना है वे
ठंडी हवायें ढोते हैं पानी नही
चाहत है उन्हे भी देख लूँ जरा

प्याउ है उधर
जा थोडा पानी पी ले
सफर हैं तो प्यास लगेगी ना

जल्दी जाने की चाहत मत रख
वरना  पैर
कंटीले वक्त से
जख्मी हो जायेंगे
आखिर चाहत अंधी और बहरी
जो ठहरी

देखा..... ना
कल ही तो
हिमालय से आनेवाली ब्यार
लहूलुहान पडी मिली थी
छूट चुकी चौराहें पर

सफर मे कई आंखो का होना
जरूरी सा लगता है अब
है ना....

तलाश रास्तों की अभी बाकी हैं

वह उस जंगल में है अभी तक
जहाँ अवतरण होता है हर किसी का
सांसों के गिनती के साथ
लोग बने रास्तो पर निकल जाते है

खोज रही है सांसों का विकास
वो रास्ता
जो बना बनाया ना हो
क्योंकि नयी और पुरानी जमीनों के बीच
कुछ लोग भटक चुके हैं

वह बनाना चाहती है
पूर्वजों के जमीन पर
एक नया रास्ता
जो थोप कर नहीं बनाई गई हो
जिसपर चलना बनावा और छलावा ना हो

जिस रास्तें का चेहरा मुस्कुरायें
जिसपर आदमियत चलती हो
नाक पर जीने वाली दुनिया
सिर्फ भेंद पैदा करना जानती हैं
जहां दिल रोता है अरमान बिलखते हैं

मेरे और तुम्हारे बीच की जमीन
जिसका रंग भी एक जैसा हैं ना
उन्हें तलाश है  आज भी
उन रास्तो की !!!

समंदर नही उफनता

मछलियां अब बारिश में
भींगनें को मजबूर है
क्योंकि समंदर  कल  शाम से 
औंधे मूंह पड़ा  है

साहिल  की  उदासी  में
चाँद  झलकता है  
लहरों की  जल समाधि में
सूखी पडी है नमी जमीन की 

शोर  है  किनारों  पर 
दिल सूना धडकनो से
छुपा ली है लम्स समंदर ने
लहरों के
अपने  दामन  में 

धरती के सीने पर
समंदर नही उफनता अब
क्योकि चाँद पर पानी मिला है   !!!     
     

चाँद को माथे से लगा

परेशानियों को आसमान में
बिखेर के
उनपर रंग भरते हुये
देखा था उसने
हथेलियों पर ले उन्हे
वह उडाती थी मानो गुलाल 
जैसे होली आस-पास के मौसमों पर
छा गई हो
और वह रंग की तरह
पडती थी दु:खो पर

कई जगह से आसमान को
उसनें छुआ था
स्पर्श के रंग बदल गये थे तब तब
मानो आकाशगंगाओ को
शब्दो ने रंग दिया हो
वह कोई चाँद था जिससे हर तारा
रश्क करता दूर होने पर

उसनें सांस को
रस्म की तरह लेना सिखा तब 
वह खुशबू को नही पहचानती थी
इक फुल की तरह 
आज जब दरवाजे से सड़्क गुरजती है
और वह जिंदगी को
दबा पाती है शोर में
तब 
जी भर किताब हो लेती है
बंद अक्षरों की खुशबू में

वह धरती के सीने पर
नन्हा मृग हो बेखौफ कुलाचे भरती 
जिंदगी से भरी
शब्दों के महक से
एक से दूसरे छोर तक जाती
और घण्टों बहती उसके पानी में
कलकल

हमारा लौटना चाहे जहाँ भी हो
पर हम नही लौटते 
किसी सम्प्रदाय की तरह
हम समंदर पर चलते 
सूरज को हथेली पर लेकर डूबते
चाँद को माथे से लगा
तारों को जिस्म पर समेटते
और मर जाते थे एक कविता पूरी होने के बाद

और वे फिर फिर नजर आये 
कही सहराओं के खाक छानते हुये
उन्होने बताया था कि यह दूसरा जन्म है
यहाँ दूर फैला रेगिस्तान है 
और तपिश भी ज्यादा उसके भटकन में !!

यंत्रो के षडयंत्र में

सिसक रही है कोठियाँ
ईंट पत्थरों के जुबान  से 
खालिश रेत सी है भाषा
दीवारों पर
स्पष्टरुप से  चेतावनी लिख दी गयी  है

ग्लोबल वार्मिंग पर
रईसी माथे का टीका है
जो नित नए नुस्खे से
बढ़ा रही है ताप
यंत्रो के षडयंत्र में 

पौलिथींन एक फैशन
तो  दूसरी  तरफ 
पलायनवादी स्वाभाव  के कारण 
सब भाग रहे हैं जमीन से 
और चिपक रहे हैं आसमान से
पर कही कोई पंख नहीं है

सुविधाओं के ऊँचाई से
गिरने के बाद कही कोई जमीन नही मिलेगी
चारो तरफ खाई पसरी होगी

सबके लिए करींने से परोसा जा रहा है खाना
और हम सब सिसकती घरों को भूलते जा रहे हैं
और भूखी नंगी दीवारों को 
जो रोती है बीते पहर 
कान और आँख ऊँचाई पर
काम करना जो बंद कर  देते  है

मानवीय जुबान गुंगी हो चुकी है
यंत्रो के षडयंत्र से
पर आज भी अनिष्ट के अशंका में 
कुत्ते भौंकते है गलियों में 
बीते पहर जब सब सो रहे होते है !

जिस्म जो पिघल जाता है शीशे में

सच्चाई से परहेज क्यों है
समाजिक आडम्बर जब
शीशे से छनकर बाहर आती है
और आंख दिखाती भी है
तब हम जेहादी हो
मारते खुद को है
समाजिक तिलिस्म पर

हाथी भी मौन में
कई मन एक दिन में खाता है खुराक
ठीक ऐसे ही हम चबाते है
सुबह से शाम तिलिस्म आदर्शो की 
ठीक सोने से पहले तक

मुखौटो पर रंग सबसे ज्यादा
काला ही लगा होता है
फिर फिर पहनते है
और लौटते हो
मानो लौट जायेंगे
सात समंदर
और जिस्म भी बदल देंगे
जैसे बारिश के बाद धूप
इंद्रधनुषी हो 
बदल देता है आसमानी चेहरा

कई हिस्सो से जिस्म कटता
मोम सा विचार भी
खाता रहा हैं जलकर सीने को
पैदा होने से लेकर अंत आने तक
चेहरे कितने तेजी से बदल लेते है
रुप और साज-सज्जा बखुबी
यह  कोई मानविय चाल है

नाटक के प्रथम चरण और अंतिम चरण
शुन्य में दिखता है
मध्यांतर के पहले और उसके बाद
पहले सिखी बातो को
झुठलाता है और आडम्बर में जीते हुये
दोहराव को ओढता है
कुढते हुये शून्य में
सहज पलायन करता है अंत में

दरअसल
पलायन जिस्म का नियम है
पर समाजिक तिलिस्म
मानविय?????

एहसास के पहले पंख

सुबह सूरज का
अपने क्षितिज पर
आने से ठीक
पहले के वक्त मे

दादा के लगाये बगीचे
जो नन्ही नन्ही घासो से बनी थी
एक सुबह थी
जिसमे एहसासों ने सांस लेना
सिखा कभी

कभी घासो से बाते
तो कभी सिंघाडे के पेड से
तितलियो के पीछे
भागते हुए
उनके पंखो पर लगे
रंगो को गिनना

तो कभी गिरे ओंस के बूँदो में
मोती तलाशना
और शबनमी बूँदो को
ऊँगलियो पर लेना
और धन्य हो जाना

गिरे फूलो से
गुडियो के लिये घण्टो गहने बनाना
रातरानी की घासो मे
लिपटी खुशबूओ के बीच

नीले आसमान का सुनहारा होना
और फिर
किरणो से आँखो को सेकना
हरी जमीन पर ठंडी पाँवो को
थिरकते देखा था
भोर होते वक्त
बचपन में !!